सावित्री बाई फुले

माता सावित्री बाई फुले : सावित्री बाई फुले का परिचय

भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले की 193 वीं जयंती दिनांक 3 जनवरी 2025 को पूरी दुनिया में मनाई जाएगी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली आधुनिक नारीवादियों में से एक माना जाता है। 1840 में महज 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ था। सावित्रीबाई महिलाओं के अधिकारों के साथ लड़ने के साथ ही समाज में व्याप्त हर कुरुतियों, पाखंड व अंधविश्वास के खिलाफ़ लड़ी थी। जाति प्रथा हो या विधवाओं के लिए काम करना हो वे कभी पीछे नहीं हटी। समाज सुधार के लिए कामों के चलते उन्हें घर भी छोड़ना पड़ा कदम कदम पर उच्च जाति के लोगों के द्वारा सावित्री बाई के कामों को नीचा दिखाया जाता और बेइज्जत किया जाता था।

सावित्री बाई फुले

भारत का पहला स्कूल

माता सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले की मदद से 1 जनवरी 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में महिलाओं और लड़कियों के लिए भारत में पहला स्कूल खोला था। इस स्कूल को खोलने में ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई फुले को अलग अलग कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ा था। जब उनको स्कूल खोलने के लिए जमीन नहीं मिल रही तब एक मुस्लिम उस्मान शेख सामने आये, जिन्होंने ज्योतिराव फुले को पहला विद्यालय खोलने के लिए जमीन दान में दी। जिस पर सावित्रीबाई फुले ने सन् 1848 में पहला विद्यालय खोलकर महिलाओं की शिक्षा पर ज़ोर दिया। इस कारण से समस्त बहुजन समाज माता सावित्री बाई फुले को शिक्षा की देवी कहकर बुलाता है सावित्रीबाई फुले ने इसी प्रकार 18 अलग अलग जगहों पर 18 विद्यालय खोले थे जो केवल महिलाओं और लड़कियों के लिए खोले गए थे। इसीलिए उन्हें भारत की प्रथम महिला शिक्षिका के रूप में जाना जाता है। उस्मान शेख की बहन फातिमा शेख द्वारा सावित्रीबाई फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर महिलाओं को पढ़ाने का कार्य किया, जिस कारण उन्हें भारत में प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका के रूप में जाना जाता है।

01 जनवरी 1848 भारत का पहला स्कूल

1 जनवरी 1848 को महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने पुणे के भिड़े वाड़ा में भारत का पहला बालिका विद्यालय खोला था।
● इस स्कूल में दोनों शिक्षण कार्य भी करते थे।
● उस समय सावित्रीबाई फुले की उम्र महज़ 17 साल थी।
● शुरुआत में उस स्कूल में सिर्फ़ नौ लड़कियां पढ़ने के लिए तैयार हुईं।
● धीरे-धीरे यह संख्या बढ़कर 25 हो गई।
● साल 1851 तक दोनों ने मिलकर पुणे में तीन और स्कूल खोले।
● 1857 के विद्रोह के बाद धन की कमी के कारण ये स्कूल बंद हो गए।
● इस स्कूल को बनाने के पीछे ज्योतिबा फुले का मकसद महिलाओं की दशा सुधारना और समाज में उन्हें पहचान दिलाना था. उस समय लड़कियों की शिक्षा को अभिशाप माना जाता था।

उच्च जातियों द्वारा शोषण

जब माता सावित्रीबाई फुले सन 1848 में विद्यालय में पढ़ाने के लिए घर से निकलती थी तो घर के बाहर निकलते ही उच्च जाति की महिलाएं व अन्य लोग सावित्रीबाई फुले के ऊपर कीचड़/गंदगी/गोबर इत्यादि फेंका करते थे। जिससे उनकी साड़ी व कपड़े गंदे हो जाते थे सावित्रीबाई फुले घर से निकलते समय एक अन्य अतिरिक्त साड़ी साथ लेकर स्कूल जाती थी। जिससे वह घर से स्कूल हुआ स्कूल से घर जाते समय उस कीचड़ वाली साड़ी को पहन सकें। इस तरीके के शारीरिक व मानसिक शोषण को उन्होंने आजीवन सहा। किंतु उन्होंने कभी भी समाज सेवा के कर्तव्य को नहीं छोड़ा वह मरते दम तक महिलाओं व लड़कियों के उत्थान के लिए काम करती रहीं।

सावित्री बाई फुले

घर के आंगन में कुआं

उस समय अंग्रेजी शासनकाल हुआ करता था किंतु उसके बावजूद भी उच्च जातियों द्वारा शूद्रों तथा अति शूद्रों को सामाजिक प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार नहीं था उच्च जातियों द्वारा सदियों से जो शोषण चला आ रहा था वह जारी था जिसके चलते शूद्रों तथा अति शूद्रों को कुओं से पानी भरने पर प्रतिबंध था। जिसके चलते ज्योतिराव फूले व सावित्री बाई फूले ने अपने घर के आंगन में एक कुआं खुदवाया था जो सार्वजनिक कुआं था जिससे कोई भी व्यक्ति पानी पीने के लिए 24 घंटे उपलब्ध था।

बिना दहेज और पुजारियों के विवाह

महाराष्ट्र में 1875-77 में भीषण अकाल पड़ा था सावित्रीबाई की अगुवाई में सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं ने व्यापक पैमाने पर भूख प्यास से मरते लोगों की मदद की थी। सत्यशोधक समाज बिना किसी पंडे पुजारियों और दहेज के विवाह करवाता था। जिस कारण से उस समय के पंडित पुरोहित व ब्राह्मण समाज ज्योतिराव फुले व सावित्रीबाई फुले की जान का दुश्मन बन गया था। मध्यरात्रि में एक बार ज्योतिराव फुले को जान से मारने के लिए रोडे और पंडित धोंडीराम नामदेव दो लोगों को भेजा गया था किंतु ज्योतिराव फुले के शब्दों से प्रभावित होकर वह अजीवन ज्योति राव फुले के अंगरक्षक बनकर कार्य किया।

नाइयों के खिलाफ़ हड़ताल

उस समय किसी महिला के विधवा होने पर उसका सिर मुंडवा दिया जाता था। सावित्रीबाई ने इस परंपरा को रोकने के लिए उसका विरोध किया और उस परम्परा को रोकने के लिए अनोखा तरीका निकाला। उन्होंने नाइयों के खिलाफ़ हड़ताल की ताकि विधवाओं का मुंडन न कर सके। घर वाले बच्चों को पढ़ाई करने से रोका करते थे ऐसे में बच्चों में पढ़ने की रुचि बनी रहे और बच्चे स्कूल न छोड़े, इसलिए बच्चों को स्कूल जाने के लिए वजीफा दिया करती थी। जातिवाद को खत्म करने के लिए सावित्री बाई लोगों को अंतर जातीय विवाह के लिए प्रोत्साहित करती थी इसमें उनके सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता मदद किया करते थे।

सावित्री बाई फुले

माता सावित्री बाई फुले की मृत्यु

1896 ईस्वी में महाराष्ट्र में एक बार फिर से अकाल की चपेट आ गया था। इस दौरान सावित्री बाई फुले को पता चला कि उनके साथी पांडुरंग बाजीराव गायकवाड़ का बेटा प्लेग की चपेट में आ गया है वे फौरन वहाँ पहुंची और बीमार बच्चे को अपनी पीठ पर लेकर क्लिनिक पहुंची। इस दौरान वे भी प्लेग की चपेट में आ गई और प्लेग के चलते 10 मार्च 1897 ईसवी सावित्री बाई फुले का निधन हो गया था।

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