"01जनवरी, 1818: शौर्य दिवस भीमा कोरेगांव"
01जनवरी, 1818: 208 वां शौर्य दिवस – 01जनवरी दुनिया के लिए नया साल होगा, परन्तु भारत के मूलनिवासियों के लिए तो यह शौर्य दिवस है”
“जातीय गुलामी, प्रताड़ना, शोषण, अत्याचार, भेदभाव, छुआछूत, असमानता का बदला लेने के लिए 01 जनवरी, 1818 को 28 हजार पेशवाई ब्राह्मणों को 500 महारों ने गाजर-मूली की तरह काट डाला था”
आइए, भीमा कोरेगांव के इतिहास के पन्नों को पलटते हैं:—-
भीमा कोरेगांव महारों के नाम पर स्थापित महाराष्ट्र के पूना जिले की शिरूर तहसील का एक छोटा-सा, परन्तु ऐतिहासिक गांव है। यह गांव भीमा नदी के तट किनारे यानि कोरे नामक स्थान पर बसा हुआ है।
भीमा कोरेगांव का घटनाचक्र छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र संभाजी महाराज को सत्ता मिलने से होता है।
छत्रपति संभाजी महाराज ने पेशवाई ब्राह्मण के बजाय उत्तर भारत के एक ब्राह्मण को अपने राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया था जिससे पेशवाई ब्राह्मण नाराज हो गये थे और उन्होंने षड़यंत्रपूर्वक छत्रपति संभाजी महाराज की हत्या करवा दी थी। इससे भी पेशवाई ब्राह्मणों को तसल्ली नहीं हुई, तो उन्होंने छत्रपति संभाजी महाराज के शव के छोटे-छोटे टुकड़े करके चारों ओर दूर तक फेंक दिए थे।
एक राजा संभाजी, महान जो हुए थे !
ब्राह्मणों ने जिनके, हजार टुकड़े किये थे !!

पेशवाओं की कुरूरता
जब छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक के लिए कोई ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ था तब छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक वाराणसी के पंडित गागा भट्ट ने अपने पैर के अंगूठे से किया था जो की एक आँख से काना था 6 जून, 1674 को रायगढ़ किले में हुए इस समारोह में पंडित गागा भट्ट ने वैदिक रीति-रिवाज़ों से शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक किया था
छत्रपति साम्राज्य के बाद जब बाजीराव पेशवा का शासन आया तो उसने महारों पर अनगिनत अत्याचार शुरू कर दिये थे। उसने बड़ी क्रूरता से वर्ण-व्यवस्था लागू कर जाति-बंधनों का पालन करवाना शुरू कर दिया था। जैसा कि वर्तमान समय में बाजीराव पेशवाई ब्राह्मणों की छवि दिखाई दे रही है।
एक ओर तो महारों से सड़क पर चलने, शिक्षा ग्रहण करने, पक्के मकानों में रहने, साफ पानी पीने, नये व साफ वस्त्र पहनने, ताजा खाना खाने जैसे अधिकार छीन लिये थे तो दूसरी ओर महारों को परेशान करने के लिए उनको दोपहर में केवल 12-01 बजे के बीच ही कमर में झाड़ू व गले में हांडी बांधकर घरों से बाहर निकलने के लिए पाबंद कर दिया था। पेशवाई ब्राह्मणों के अत्याचारों से महार बहुत ज्यादा परेशान हो गए थे, तो उन्होंने पेशवाओं से प्रतिशोध लेने की ठान ली।
इसके लिए महारों ने अंग्रेजी सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया।
भीमा कोरेगांव की घटना
जब भीमा कोरेगांव में अंग्रेजी सेना और पेशवाई सेना 01 जनवरी, 1818 को युद्ध के लिए आमने-सामने थीं तो अंग्रजी सेना में मात्र 500 महार सैनिक थे, जबकि पेशवाई सेना में 28000 सैनिक थे। महारों के सेनापति सिदनाग थे महार सैनिकों का नेतृत्व अंग्रेजों की ओर से कैप्टन स्टाटन ने किया था जिसके सेनापति सिदनाग थे महार सैनिकों का नेतृत्व रतनाग, जतनाग और भीकनाग की किया था ऐसा कहा जाता है कि इन महार सैनिको को युद्ध के मैदान में देख पेशवाओं के 2000 सैनिक युद्ध प्रारंभ होने से पहले ही भाग खड़े हुए थे जिस कारण 30,000 मे से केवल 28,000 सैनिक बचे थे | पेशवाई सेना को देखकर अंग्रेजी सेना के अफसरों के हाथ-पैर फूल गए थे, परन्तु महार सैनिक पेशवाओं से बदला लेने के लिए तड़प रहे थे और उन्होंने अंग्रेजी अफसरों को कहा कि हम मर जाएंगे, परन्तु पीछे नहीं हटेंगे।
1 दिन एक रात यह युद्ध चला जिसमें अंग्रेजी सेना के 276 महार सैनिकों की शहादत हुई | ब्रिटिश सरकार ने इन 276 महार सैनिकों की याद में भीमा कोरेगांव में एक 75 फ़ीट ऊंचा विजय स्तंभ बनवाया था जिस पर इन शहीद सैनिकों के नाम विजय स्तंभ पर लिख गए थे जो आज भी भीमा कोरेगांव में स्थित है | इस प्रकार से महारों ने छत्रपति संभाजी महाराज की हत्या और महारों पर पेशवाई ब्राह्मणों के अत्याचारों का बदला ले लिया था।
28000 में 500 का भाग देने पर परिणाम 56 आता है यानि 01 महार सैनिक ने 56 ब्राह्मण सैनिकों को मौत के घाट उतारा था, इसी घटना से 56 इंच के सीने की कहावत प्रचलित हुई थी।
अंग्रेजों ने इसी जीत की खुशी में भीमा कोरेगांव में 75 फीट ऊँचा एक विजयस्तम्भ बनवाया जिस पर अंग्रेजी सेना के अफसर व मूलनिवासी प्रत्येक वर्ष 01 जनवरी को जाकर महारों के वीर शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित करते थे जो एक परम्परा बन गई थी जिसे बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ने भी ताउम्र निभाया था जो आज भी अनवरत जारी है तथा देश के लाखों मूलनिवासी प्रत्येक वर्ष 01 जनवरी को भीमा कोरेगांव जाकर अपने पुरखों के शौर्य का नमन करते हैं।
भीमा कोरेगांव की क्रांति एक संयोग नहीं थी, बल्कि ब्राह्मणों के अत्याचारों का प्रतिशोध थी।

डॉ आंबेडकर के विचार
भारत में दो संस्कृतियों का संघर्ष कालांतर से आज तक जारी है। एक ओर श्रमण संस्कृति तो दूसरी ओर ब्राह्मण संस्कृति। एक ओर नाग संस्कृति तो दूसरी ओर आर्य संस्कृति। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर अपनी किताब “भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति” में लिखते हैं की भारत का इतिहास दो संस्कृतियों के बीच संघर्षों का इतिहास है इसके अलावा और कुछ नहीं है|
श्रमण संस्कृति अर्थात नाग संस्कृति मानव कल्याण की संस्कृति रही है जो मानव-मानव एक समान की संस्कृति है, तो ब्राह्मणी संस्कृति बनाम आर्य संस्कृति छुआछूत, भेदभाव, असमानता, विषमता की पोषक रही है। ब्राह्मणी संस्कृति यज्ञ, हवन, कर्मकांड, पूजापाठ अंधविश्वास की संस्कृति है जिसकी झलक वर्तमान में आपको देशभर में बहुतायत में देखने को मिल रही है यानि ऐसा लग रहा है कि वर्तमान में पेशवाई ब्राह्मणों का ही राज चल रहा है।
सनद रहे, बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर के दादाजी परमश्रद्धेय मालोजी सकपाल साहब और बाबासाहेब के पिताजी सम्माननीय रामजी सकपाल साहब भी सेना में थे।
बहुजन मूलनिवासियों की शहादत
महारो ने न केवल इस युद्ध में प्राप्त की बल्कि महारों ने और इस देश के बहुजन मूलनिवासियों (SC, ST or OBC) ने 1856 के प्रथम विश्व युद्ध में सैकड़ों बहुजन मूलनिवासियों ने अपना खून बहकर शहादत दी थी इसके अलावा देश की आज़ादी में समय समय पर तिलका मांझी, शहीद उदेया चमार, सिदो और कान्हू, मातादीन वाल्मीकि, वीरा पासी, बांके चमार, गंगादीन मेहतर, मक्का पासी, माता उदा देवी पासी, झलकारी बाई, चेतराम जाटव, बालूराम मेहतर, बिरसा मुंडा, शहीद उधम सिंह, मंगू राम चमार, धन सिंह कोतवाल और भगत सिंह आदि शहीदों ने अपना जीवन देश के नाम किया ।
महार नागवंशी थे और आज भारत में नागवंशी विभिन्न राज्यों में पाये जाते हैं जिनकी शाखाएं अनेक नामों से जानी-पहचानी जाती हैं। मिजोरम में मिजो, नागालैण्ड में नाग, उत्तर प्रदेश में चमार-जाटव, राजस्थान में चमार-बैरवा-मेघवाल, अन्य राज्यों में आसामी, गोरखा, तमिल, सिक्ख आदि नागवंशियों की ही शाखाएं हैं।
स्वतंत्रता के बाद भी महार रेजीमेंट का सफरनामा गौरवशाली रहा है। वर्ष 1959 में चीनी सेना को महार रेजीमेंट ने अपनी ताकत पर लद्दाख से मार भगाया था। इसी प्रकार वर्ष 1965 में भी महार रेजीमेंट ने पाकिस्तान के छक्के छुड़ाये थे। अग्रवत वर्ष 1971 में भी पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग कराने में महार रेजीमेंट ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
कपिल बौद्ध
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